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बेरंग रंगों की रंगोली…..

*काव्य-कल्पना*
*काव्य-कल्पना*
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बेरंग रंगों की रंगोली,
और मौन के धुन का गीत कोई,
कैसे बेरंग छटाओं में,
ढ़ुँढ़ु मै रंगों की होली।

तुम अपनी चुनर रंग लो,
रंगीन बना लो अब चोली,
मेरे रंगों में रंग नहीं,
बेरंग है जीवन की होली।

अब एक रंग ही साध लिया,
सब रंग है मैने बिसराया,
बस गुमशुम सी तेरी आहट पर,
मैने तो कई गीत बनाया।

अब इन बेरंग सी रलीयों में,
नादान ये मन कब तक भटके,
लेकर आओ तुम फिर भर कर,
अपनी अँजूरी में रंगों की झोली।

बहती है अब भी वैसी पवन,
जो दिल का दर्द समझती है,
धरती के प्रेम में मग्न गगन,
बूँदे बन कर तो बरसती है।

सुनकर ये प्रीत के गीत कही,
मन मेरा खेले है होली,
और स्वर की मधुर अलापों से,
निकले मधु भावों की बोली।

कभी देख श्याम को मीरा ने,
रँगवायी थी मन की चोली,
और बेसुध होकर नाच रही थी,
गोपी,ग्वालन की टोली।

सब संग जलाकर प्रेम धुनी,
बस श्याम का नाम पुकारते,
और श्याम बचा कर लाज द्रौपद के,
कष्ट से पल में उबारते।

बेरंग है जीवन मतवाला,
ना फिक्र किसी की रहती है,
कभी मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा,
हर आँगन में गंगा सी बहती है।

रंगों का बोझ है ये जीवन,
जिसमें जो रंगा वो पछताया,
पर मन की बेसुध बाँसुरी को,
तो बस रंग ही है भाया।

मै आज तुम्हारी गलियों में,
बेरंग सा बन कर भटकूँगा,
तुम देख कर मुझको,
बस कह देना,
ये है दिवानों की टोली।

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