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विचारों का घर

*काव्य-कल्पना*
*काव्य-कल्पना*
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मेरे विचारों के घर के,
कोणे वाले उस कमरे में,
अब भी मेरी दो रचनायें,
वैसे ही टँगी हुई है।

दीमक लग रहे है उनपे,
अक्षर मीट रहे है धीरे धीरे,
धूमिल हो रहा है यादों का खजाना,
और गुमशुम से वे दोनों प्रतीक्षारत है।

पहले कभी कभी मै और मेरी लेखनी,
विचारों के घर के,
कोणे वाले उस कमरे में,
टँगी उन दो रचनाओं से मिल आते थे।

पूछते थे कैसे हो तुम,
क्या ये खामोशी अच्छी लगती तुम्हें।

और बिन कहे उनसे उन्ही के,
कुछ अक्षर चुरा लाते थे,
और मेरी डायरी के पन्नों में,
उकेर देते थे।

पर अब जब से मेरी लेखनी,
भूल गई है वो रास्ता,
जिससे मेरे विचारों के घर के,
कोणे वाले उस कमरे में,
टँगी उन दो रचनाओं से मिलने जाया जाता था।

तब से बेअसर होकर,
न जाने क्यों बस ढ़ुँढ़ती है अब,
उन राहों को।

विचारों का घर न जाने कबसे,
वैसे ही बंद पड़ा है,
और कोणे वाले उस कमरे में,
टँगी दो रचनायें न जाने किस हाल में है।

वो दो रचनायें,जिनमें एक रचना,
मेरी कल्पनाओं का आकाश समेटे हुए है,
और दुसरी मेरे विवशता का मूर्त स्वरुप।

अपने विचारों के घर से बेदखल,
मेरी लेखनी अब तो ना ही,
स्वच्छंदता से कल्पनाओं के आकाश में,
उड़ ही पाती है और न तो,
अपनी विवशता को शब्दों में गढ़ पाती।

अब तो बस कोरे कागजों पर,
निरर्थक अक्षरों को उकेरती रहती है।

चाह कर भी मै और मेरी लेखनी,
मेरे विचारों के घर के,
कोणे वाले उस कमरे में,
टँगी हुई मेरी उन दो रचनाओं से,
मिल नहीं पाती है।

और उन दो रचनाओं के गुम होने से,
मानों मेरा पूरा जीवन ही बेवजह सा गुजरता है अब।

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