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चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती

*काव्य-कल्पना*
*काव्य-कल्पना*
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चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती,
सूने मन आँगन का सूनापन,
फिर राह तेरी निहारती।

गुजरे हो मानों सुनहरे क्षण,
नैनों के अश्रु कण,यादों के मोती बन,
मंजर हो सारे बिल्कुल थमे,
आसमां में बस चाँद पे हो नजरे जमे।

खुशबु फिर वही पुरानी,
बिल्कुल जानी पहचानी,
रँग कर हवाओं के संग में,
बहारों को फिर से सँवारती।

चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती।

अठखेलियों का सिलसिला,
मुझसे,तुम्हारा शिकवा गिला,
शरमा के फिर छुप जाना,
हँस के तुम्हारा गुस्साना।

खो गया कहा,अब ना मिला,
दिल फिर भी ना कुछ है भूला,
खुद में ही अब गा लेता है,
यादों में तुमको पा लेता है।

गीतों के सहारे ही तुम आकर,
प्यार के हर क्षण को दुलारती।

चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती।

अकेला रात में सायों से करता,
दिल की जो बातें रह गयी थी अधूरी,
तुम ना आयी अब तक,
ना आओगी अब कभी यहाँ,
सोच कर दिल की हालत हो गयी थी बुरी।

अब प्राण से ना लगाव रहा,
लुट गया इक पल में प्यार का जहाँ,
प्रियतमा क्या तुम भी कही से,
कभी कभी मुझको पुकारती।

चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती।

स्पर्श का स्मरण ही तुम्हारा,
जीवन का सबसे है प्यारा,
कही हुइ तेरी हर बात,
मन के सूने नभ का है सितारा।

इक चाँद के बिन चाँदनी,
सा हाल दिल का हो गया,
क्यों आज की रात चाँद को देख,
आँख मेरा फिर रो गया।

ऐसा लगा कि अब भी कही तुम,
दो बूँद आँसू के बहाती।

चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती।

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